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‘द स्टोरीटेलर’ फिल्म समीक्षा: पूँजीवाद और रचनात्मकता के बीच संघर्ष की दास्तान

अनंत महादेवन द्वारा निर्देशित फ़िल्म द स्टोरीटेलर (2025) सत्यजित राय की कहानी गल्पो बोलिये तरिणी खुरो पर आधारित है। यह फ़िल्म रचनात्मकता और पूँजीवाद के बीच टकराव को गहराई से उजागर करती है। फ़िल्म की कहानी दो विपरीत व्यक्तित्वों पर केंद्रित है—तरिणी बंद्योपाध्याय (परेश रावल), जो एक अनुभवी बंगाली कहानीकार हैं, और रतन गरोडिया (अदिल हुसैन), जो एक अमीर गुजराती व्यापारी है। रतन वर्षों से अनिद्रा का शिकार है और तरिणी को विशेष रूप से कहानियाँ सुनाने के लिए अपने पास बुलाता है। लेकिन कहानी यहाँ मोड़ लेती है जब रतन तरिणी की मौखिक कहानियों को चुराकर “गुज्जू गोर्की” नाम से प्रकाशित करता है और प्रसिद्धि पाने लगता है।

कला बनाम व्यापार: एक विचारोत्तेजक बहस

फ़िल्म इस सवाल को उठाती है कि क्या पूँजीवादी व्यवस्था में कला और रचनात्मकता को सही सम्मान मिल सकता है, या फिर यह सिर्फ़ मुनाफ़ा कमाने का जरिया बनकर रह जाती है। तरिणी, जो कहानियों को साझा करने को एक परंपरा मानते हैं, पूँजीवादी दुनिया में अपने विचारों के शोषण का शिकार बनते हैं। यह मुद्दा घोस्टराइटर्स, कलाकारों और मज़दूरों के संदर्भ में भी प्रासंगिक हो जाता है, जिन्हें अक्सर उनका उचित श्रेय नहीं मिलता।

कोलकाता बनाम अहमदाबाद: दो संस्कृतियों का टकराव

फ़िल्म में कोलकाता और अहमदाबाद की दो अलग-अलग संस्कृतियों को दर्शाया गया है। कोलकाता की गलियाँ, मछली बाज़ार और ऐतिहासिक धरोहरें सामुदायिक जीवन और परंपराओं की जीवंतता को दर्शाती हैं, जबकि अहमदाबाद का आलीशान महल पूँजीवाद की ठंडी और गणनात्मक प्रकृति का प्रतीक है। यह दो शहरों के माध्यम से सामूहिक विरासत और व्यक्तिगत लालसा के बीच के संघर्ष को दर्शाता है।

प्रतीकों के माध्यम से गहरा संदेश

फ़िल्म में एक बिल्ली का किरदार भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो शाकाहारी भोजन खाने के लिए मजबूर होती है। लेकिन जैसे ही उसे मौका मिलता है, वह मालिक की मछलियाँ चुराकर खा लेती है। यह दृश्य प्रतीकात्मक रूप से दर्शाता है कि समाज द्वारा लगाए गए कृत्रिम नियमों के बावजूद व्यक्ति की स्वाभाविक इच्छाएँ कैसे प्रबल हो सकती हैं। जब तरिणी अहमदाबाद छोड़ते समय इस बिल्ली को अपने साथ कोलकाता ले जाते हैं, तो यह सांस्कृतिक मुक्ति का संकेत बन जाता है।

महिला किरदारों की सशक्त भूमिका

फ़िल्म में महिला पात्रों को मज़बूती के साथ चित्रित किया गया है। रेवती द्वारा निभाई गई विधवा सरस्वती का किरदार नैतिकता और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। वह रतन की चोरी का विरोध करती हैं और उसे ठुकरा देती हैं। इसी तरह, तनिष्ठा चटर्जी द्वारा निभाई गई लाइब्रेरियन सूजी भी आत्मविश्वास से भरपूर है। तरिणी की दिवंगत पत्नी, जो उन्हें एक कलम उपहार में देती है, उनकी रचनात्मकता को निरंतर प्रेरित करती रहती है।

फ़िल्म का धीमा लेकिन प्रभावी नैरेटिव

आज के दौर में जब फ़िल्में तेज़ एडिटिंग और चमकदार दृश्यों पर निर्भर होती हैं, द स्टोरीटेलर अपनी धीमी और विचारशील प्रस्तुति के ज़रिए दर्शकों को कहानी में गहराई से डूबने का अवसर देती है। अल्फोंस रॉय की सिनेमैटोग्राफी कोलकाता और अहमदाबाद के दृश्यों को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करती है।

अभिनय: फ़िल्म की सबसे बड़ी ताकत

परेश रावल ने तरिणी की भूमिका में शानदार अभिनय किया है। जब उन्हें रतन की धोखाधड़ी का पता चलता है, तो वे गुस्से में कोई कठोर कदम उठाने के बजाय धैर्यपूर्वक खेल खेलते हैं और अंततः उसे सबक सिखाते हैं। दूसरी ओर, आदिल हुसैन ने एक असुरक्षित पूँजीपति की भूमिका को शानदार ढंग से निभाया है, जो अपने अकेलेपन और असुरक्षा से जूझ रहा है।

क्या पूँजीवाद और कला का संघर्ष कभी खत्म होगा?

फ़िल्म का अंत विचारोत्तेजक है। तरिणी और रतन दोनों ही लिखना शुरू करते हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह संघर्ष वास्तव में इतना सरल है? क्या कला पूँजीवाद से मुक्त हो सकती है, या फिर यह हमेशा मुनाफ़े के चंगुल में फँसी रहेगी?

द स्टोरीटेलर सिर्फ़ एक मनोरंजक फ़िल्म नहीं, बल्कि यह हमें रचनात्मकता और पूँजीवाद के रिश्ते पर विचार करने के लिए मजबूर करती है। यह एक ऐसी कहानी है जो कला की आत्मा को पूँजीवादी लालसा से बचाने की कोशिश करती है और यह संदेश देती है कि कल्पना चुराना, उसे रचने से कहीं आसान होता है।

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